Wednesday, August 4, 2010

About Me!

1.dreamer
2.lazy
3.kabhi kabhi(ya shayad aksar)darr lagta hai
4.koshish karta hu hamesha sach bolu magar aksar galti ho jati hai
5.kisi ko dukhi nahi karna chahta par kabhi kabhi shaitan hawi ho jate hai,kyunki aatma thodi kamzor hai shayad
baad me khub rota hu,ya truth ka pallu me chup jata hu
6.bachche ya kaho ki innocence achcha lagta hai
7.logoko khush dekh ke achcha lagta hai,par aatma kamzor hai isi se irshya hawi ho jati hai
kabhi kabhi,par aaj kal sach bolne wali aatma ke chalte thoda control ho jata hai
8.hamesha har kisi ke saath rahana chahta hu
9.badai sunna achcha lagta hai,par agar halka bhi andesha ho ki maza liya ja raha hai ya phasaya ja raha hai
to vyagrata,krodh,nafrat hawi ho jati hai
10.kisi ki madad karne ka mann karta hai,zahir hai apne antas ki santushti ke liye,par usse fayda lene ki ichcha
awaze karne lagti hai antar mann me.
11.tiraskar bardasht se bahar hai,kisi ko chahu agar aur wo dhyan bhi na de to khud ko kasht dena achcha lagta hai.

bas itna hi ha kabhi kabhi ye lagta hai ki kitna achcha hota ki joo film chal rahi hai
usme aage kahani badhna band ho jae aur puri film ekbaar fir dekhu,jab tak mann na bhar jae
mann bhar jane ke baad kahani fir aage likhi jae,aisa lagta hai zindagi me bahot kuch hua jise mai ji bhar
ke dekh nahi paya.

13.ha ek baat aur mere paas job nahi hai,paise kamane ka koi srot nahi hai.

Friday, February 12, 2010

खान का तहलका

मैंने आज दो काम किये (१२ फ़रवरी)पहली शाहरुख़ कि फिल्म MNIK देखि ,दूसरा तहलका पत्रिका खरीदी और उसे पढ़ा.पहले दुसरे वले काम के बारे में बताना चाहुगा.तहलका में एक लेख था,शीर्षक था आल इस नोट वेल ,उसमे लिखा था 3 idiots दरअसल एक पर्द्रिश्य में सफल फिल्म नहीं है.लिखने वाले के हिसाब से (मुझे उसे लेखक कहना अच्चा नहीं लग रहा)"अगर इस फिल्म को भारतीय शिक्चा निति कि ऐसी दूरदर्शी आलोचना कि तरह पढ़ा जा रहा है,जिस पर पहले किसी कि नज़र न पड़ी हो तो इसके पीछे लोगो का अज्ञान ज्यादा है फिन्म कि उत्कृष्टता कम".कि हाल ही के दिनों में भारत और दुनिया भर में शिक्षा को ले कर जो बुनियादी बहस चल रही है,वो इस फिल्म से काफी आगे कि है.

अंत में लेखक जिनका नाम प्रिय दर्शन है और जिन्हें मैंने फ़िल्मकार प्रिय दर्शन समझ लिया था(क्युंकी मैंने फ़िल्मकार प्रिय दर्शन के बारे में उनसे ज्यादा सुना है,और वास्तव में मई प्रिय दर्शन के बारे में भी ज्यादा नहीं जनता,मतलब ये है कि मई प्रिय दर्शन के बारे में लगभग कुछ नहीं जनता)बाद में आगे पढने पर पता चला कि वे एन.डी.टी.वी के वरिष्ट पत्रकार है और एक बुध्धिजिवे है,ने लिखा था"असल में ये चमकता दमकता भारत ही है जो कभी ३ इदिओत्स देख कर अपनी जाला लगी आला देग्रीयों पर संदेह करता है,और चकदे इंडिया देखकर भारत का मतलब समझने कि कोशिश करता है.उसे अच्ची किताबे पढने कि आदत नहीं,ज़रूरी बहसों में शामिल होने कि फुर्सत नहीं.फिल्मे उसकी बौध्धिक खुराक पूरी करती है और कुछ बचा रह जाता है,उसे देने के लिए उसका छोटा सा जो बौध्धिक समाज है जो अपनी साहित्यिक गोष्ठियों में ओमपुरी और जावेद अख्तर को पके खुश होता है".

पूरा कुछ पढ़ कर मेरे दिमाग में कई सवाल पैदा हो गए.पहला क्या ये फ़िल्मकार प्रिय दर्शन है जो कि हो सकता है बॉलीवुड के एक खेमे से बेलोंग करते हो जिसमे आमिर न आते हो.MNIK भी इसी समय आई है इस लिए ये भी सवाल आया कि क्या ये शाहरुख़ वाले खेमे में से है.तीसरा ये कि ये आदमी एक ऐसी चीज़ पर इतना जोर क्यों दे रहा है,जिससे कि सबको लगता है कि कोई फायदा नहीं होता बस झगडा या टाइम पास के अलावा(मेरा मतलब बहस से है),फिर मैंने तहलका आगे पढना जारी रखा और सवाल आया कि क्या इस पत्रिका का बस यही काम है कि समाज कि उस मनोवृति को सहलाना जिसे लगता है कि कभी कुछ नहीं हो सकता,जैसे कि बिहार में हालत कुछ भी नहीं सुधारे,लालू के समय भी नहीं सुधारे थे.फिर सवाल आया कि क्या इस पत्रिका कि कम्नाये कुछ ज्यादा और तीव्र है.फिर मेरे दिमाग में आया कि कृष्ण ने गीता में और बुध्ध ने स्वयं कहा है कि ये कम्नाये दुःख का कारन है,और क्या ये पत्रिका दुःख का एक स्रोत है.(खैर किया भी क्या जा सकता है बहस करने वाले तो गीता को भी गलत और कृष्ण का एक राजनितिक भाषण करार देते है,और बुध्ध को निराशावादी).

मेरे मन में आया कि इन साडी चीजों का जवाब खोजना चाहिए.तो मैंने दिमाग में उन लेखक महोदय का चित्र बनाया(मैंने उनसे नहीं कहा ये सब याद रखिये)और कहा कि जनाब बचपन में जब आपके दादा या कोई और बुजुर्ग आपसे कोई कहानी सुनाता था तो उसकी वजह होती थी कि वो आपसे बेहद प्यार करता था और दूसरी ये कि वो आपको एक ऐसे घटना क्रम के बारे में बताना चाहता था जो उसे कभी बहुत अच्ची लगी थी,न कि इस लिए कि वो चाहता था कि आप इस आधार पर दुनिया बदले(और जबभी उसने आप को इस वजह से कहानी सुने होगी तो वो आपको काफी उबाऊ लगी होगी)अब यदि आप उस कहानी के आधार पर दुनिया बदलने कि सोचने लगे तो इसकी वजह आपकी तीव्र कामना है जो कि आपकी पत्रिका का आधार है(आमिर के शब्दों में मीडिया काफी अत्ताच्किंग हो गयी है!).और यदि बदल न पाए(वो भी इस लिए कि आप बहस
बहुत करते है).तो अपने दादा को दोष देना बहुत बड़ी अज्ञानता है.अब तो इस बात पर शक होता है,कि आपके पास कोई बौध्धिक सम्पदा है भी कि नहीं.लेकिन मेरी बात मानिये आपके दादा का ज़रा भी दोष नहीं है,कोई अपनी प्रेमिका से प्रेम करे तो उसमे भी एकाध पॉइंट गलत निकला जा सकता है पर बच्चे पर किसीका गलत प्रेम पड़ता ही नहीं,अब मान भी जाईये.

जब कोई फिल्म बने जाती है तो इसके पीछे वजह ये होती है कि कोई कहानी जो हमें अच्ची लगी है उसे हम दुसरो को बताना चाहते है,जानना चाहते है कि जब हम खुश हुए.रोए,हसे या गुस्सा हुए,बाकि लोग भी क्या उसी तरह हुए,कि क्या हम भी वैसा ही सोचते है जैसा कि दुसरे सोचते है,क्या हम सबके बिच में ये कोम्मों चीज़ है.जब मैंने किसी सड़क के कोने से किसी चाय कि गुमटी पर बैठ कर सड़क पर आती जाती गाड़ियाँ देखा तो मुझे लगा कि ये सड़क जिसे में पिछले ५ साल से परिचित हु कितनी नयी लग रही है,क्या बाकियों को भी ऐसा ही लगता है.जब मैंने किसी सायकिल के पहिये के पीछे पड़ी टूटे पुरुए और उसके पीछे कूड़े का गन्दा ड्रम देखा तो न जाने क्यों मुझे अच्चा लगा,क्या बाकियों को भी अच्चा लगा.अगर फिल्म कामयाब होती है तो पैसे से ज्यादा ये बात अहम् होती है कि मई अकेला नहीं हु इस दुनिया में,मेरे जैसी अंतरात्मा रखने वाले लोग कई कई,जब फिल्म अच्ची नहीं लगती तो सबसे ज्यादा दुःख भी इसी बात का होता है.विश्वास नहीं होता तो बता दू कि आज मैंने अपने एक दोस्त के साथ मणिक देखि.मई साफ़ पढ़ सकता था कि उसे फिल्म पूरी बकवास लगी थी(सच तो ये है कि मुझे खुद)और वो लौटते समय सरे रस्ते खुल कर हस नहीं पाया,केवल दबी हुई मुस्कराहट,मैंने जब भी उससे फिल्म के बारे में चर्चा कि तो वो कभी भी चर्चा में दिलचस्पी नहीं ले रहा था.वजह बेशक वो ३० रूपए नहीं थे जो वो उन लोगो को दे आया था(जाहिर है क्योंकि फिल्म अच्ची लगने पर भी वो उसे वापस नहीं मिलने वाले थे)वजह थी भीड़ जो MNIK देखने आई थी और जो उसे देखने के लिए मर रहे थे,मेरे दोस्त को लगने लगा था कि क्या वो इन सबसे अलग है,उसे ही फिल्म अच्ची क्यों नहीं लगी क्या वो अपने दिमाग में अकेला है हालाँकि घर पहुचने पर उसका ये अकेला पण बेशक अपने लोगो के बीच दूर हो गया और अब वो बिलकुल ठीक है.

फिल्म बनाने का केवल यही एक उद्देश्य होता है चचाजान और यदि कोई इससे अलग उद्देश्य से फिल्म बना रहा है तो वो बेचारा सच में आपसे बड़ा अज्ञानी है(चलिए ये आपके लिए सुकून कि बात है कि आप अकेले नहीं है,इससे मज़ेदार बात हो ही नहीं सकती कि आप अकेले नहीं है,चाहे आप गधे ही क्यों न हो ,किसी का साथ मतलब रखता है,और मई बिलकुल नहीं जनता कि आमिर इस उद्देश्य से फिल्म बनाते है कि नहीं,कि शाहरुख़ इस उद्देश्य से फिल्म नहीं बनाते,क्योंकि मेरी उन दोनों से कभी एक लफसा बात भी नहीं हुई है.

देखिये न अब मेरे idiot (अरे वो dostoevsky के नोवेल का प्रिंस मिश्किन नहीं है भाई,जीता जगता इंसान है)के पास कितने सवाल है.क्यों लोगो को MNIK इतनी अच्ची लगी ,ऐसा क्या उन लोगो ने उसमे देख लिया जो मैंने मिस कर दिया,मई कैसे अच्चा लागू,किस तरह से देखू,क्या वो हिंदी,मराठी ,पाकिस्तानी,शिवसैनिक के बवाल के चलते इतनी भीड़ आ गयी(इस पर बेचारे को थोडा सुकून मिला)मगर अगर ऐसा है तो क्या शिव सैनिक इतने गिरे हुए है,और क्या शाहरुख़ जिसके पास खुद इतने पैसे है,केवल पैसो के लिए इतना धोखा बनता है,पब्लिक के सामने सब इस तरह का नाटक करते है,दरअसल इस सब कि बातो का कोई आधार नहीं है,क्या राहुल गाँधी ने सिर्फ एक ऐसी घटिया फिल्म के लिए इतनी नाटक बाज़ी कि थी.

तो चाचा जान उसके सवालो से मई बहुत तंग आ गया पर बदनसीबी से वो मेरा एक अच्चा दोस्त है ,तो मैंने उससे कहा कि अगर सब promotional stunt है तो दो तिन दिन में पता चल ही जायेगा,वापस सिनेमा हाल में जा के देख लेंगे,अगर भीड़ नहीं होगी तो मतलब कि था,और आज बाकि लोग भी उसी भ्रम में आ गए थे जिसमे हम चले गए,अगर भीड़ होगी तो दुखी हो लेना.बाकि के लिए सच बोलते रहो और काम करते रहो,और इंतजार करो कि कब फिर से कृष्ण आते है इन कामनाओं से खेलने के लिए.इस पर उसने कहा कि वो तो पहले से ही है बस इस बार मनुष्य कि जगह पैसे के रूप में.भगवन का शुक्र है कि बेचारा अब सो गया है.